मेरे पड़ोस में कुछ दलित बंधुओं के परिवार रहते हैं । वे लोग यहां के पुस्तैनी बाशिंदे हैं । कालोनी बनने से पहले उनके ही बाप-दादा यहां की जमीन के मालिक होते थे । जमीन तो बेच दी, किंतु उससे मिले पैसे का उचित निवेश वे लोग नहीं कर सके । लिहाजा उनकी आज की माली हालत कामचलाऊ से बेहतर नहीं कही जा सकती है । अस्तु, उन्हीं में से एक परिवार के युवक का विवाह कुछ माह पहले संपन्न हुआ । उस वैवाहिक कार्यक्रम का निमंत्रण पड़ोसी होने के नाते मेरी अनुपस्थिति में घर पर भी पहुंचा था ।
उस समारोह के कतिपय दिन पूर्व मैं घर से कुछ ही दूर सड़क के किनारे अपने अन्य पड़ोसी, तिवारीजी, से बातचीत में संलग्न था । तभी विवाह वाले परिवार के मुखिया (वर के पिता) बगल से गुजरते वक्त हमारे पास रुक गए । मैंने उन्हें बधाई देते हुए वैवाहिक कार्य के निविघ्न संपन्न होने की शुभकामना दी ।
उन्होंने मुझसे कहा, “मैं खुद आपके घर पर गया था कार्ड सौंपने, तब आप घर पर नहीं थे । आपको ब्याह में शामिल होना है । आपके आशीर्वाद के बिना काम नहीं चलेगा ।”
इतना कहते हुए वे तिवारीजी की ओर मुखातिब हुए और उनसे बोले, “आप भी याद रखें, आना जरूर है । आप लोग भूलिएगा मत ।”
और इन शब्दों में अपनी बात कहकर वे आगे बढ़ गए । विवाह जैसे निजी सामाजिक आयोजनों में अपने परिचितों, मित्रों और पड़ासियों को आमंत्रित करने की प्रथा कमोवेश सभी जगह देखी जाती है । पड़ोसियों को निमंत्रण देना बहुधा एक प्रकार की विवशता होती है, क्योंकि आते-जाते रोज ही उनसे मुलाकात, दुआसलाम हो जाती है, भले ही एक-दूसरे के परिवार के साथ उठना-बैठना न होता हो । दरअसल दुनिया में सभी समाजों में व्यक्ति गिनेचुने लोगों से ही निकट संबंध बनाता है जो विशिष्ट अर्थ में उसके “समकक्ष” होते हैं । अन्य लोगों के साथ बहुधा औपचारिकता ही निभाई जाती है । अस्तु, बाद में मैं बारात में तो शामिल नहीं हुआ, लेकिन उसके उपरांत आयोजित “भोज” में सम्मिलित अवश्य हुआ ।
हां तो मैं वापस तिवारी जी के साथ की उस मुलाकात पर लौटता हूं । निमंत्रणदाता पड़ोसी के चले जाने के बाद वे कहने लगे, “देखा इन्हें ? शहर में होने की वजह से इनकी इतनी हिम्मत है कि हम-आप को निमंत्रण देते हैं । अपने गांव में होते तो इनकी ये हिम्मत होती ।”
इसके आगे जो कुछ भी उन्होंने कहा उसकी खास अहमियत नहीं है । असल मंतव्य उनका ऊपरिलिखित कथन स्पष्ट कर देता है । भारतीय समाज सदा से ही विविध आधारों पर विकट रूप से विभाजित रहा है । विश्व में शायद ही कोई समाज होगा जहां आर्थिक आधार पर गैरबराबरी और उसके कारण भेदभाव न बरता जाता हो । लेकिन अपने यहां तो क्षेत्रियता, धर्म, भाषा, और जाति, आदि सभी के आधार पर भेदभाव का बोलबाला है । कानूनी तौर पर भले ही जातीय भेदभाव वर्जित हो, व्यवहार में तो वह पग-पग पर दिखता ही है । तथाकथित अगणी जातियां आज भी दलित वर्ग के लोगों को हेय दृष्टि से ही देखती हैं । मेरा मानना है कि जब तक जातियां हैं – और वे रहेंगी ही – जातीय गैरबराबरी भारतीय समाज में बनी रहेगी । – योगेन्द्र जोशी
पर शिक्षित लोगों को तो समझने आगे आने कि जरूरत है ही.केवल यह कहने से काम नहीं चलता कि यह तो चलेगा ही.
व्यवहार में ऐसा देखने में अब भी आ जाता है लेकिन पहले के मुकाबले स्थिति में काफ़ी बदलाव आया है।
वहीं दूसरी तरफ़ ऐसा भी देखने में आता है(कम से कम सरकारी दफ़्तरों में) कि किसी विवाद की स्थिति में जाति आदि को हथियार की तरह प्रयोग किया जाता है।
अब ऐसे बर्ताव बबुत बहुत कम हो चले हैं बशर्ते जातिगत राजनीति इन भावनाओं को न भड़काए
प्रत्युत्तर में –
देश का दुर्भाग्य यही तो है कि हमारे राजनेता “बांटो और राज करो” की नीति अपनाकर अपने-अपने जातीय, धार्मिक, भाषायी, और क्षेत्रीय वोट बैंक बनाने में जुटे हैं। उन्हें देश और समाज के हितों की चिंता नहीं है। उनकी नजर अगले 5-साला सत्तासुख पर गढ़ी रहती। है कोई नेता जो यह बताए कि आने वाले 15-20 साल में देश की वह कैसी तस्वीर बनाने की सोचता है? मुलायम-मायावती प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं बताया कि देश के लिए दीर्घकालिक किन योजनाओं के बारे में वे सोचते हैं। अगला प्रधानमंत्री “मैं” केवल इतना कहते हैं वे, चाहे उनके राज में देश का बंटाधार हो जाए। अपने उत्तर प्रदेश को तो ’उलटा प्रदेश’ बना चुके हैं वे, देश को भी उलटा देश बना देंगे। ऐसे नेताओं के रहते जातिवाद घटने के बजाय बढ़ेगा ही।
जाति छूटना मुश्किल है।