लगभग साड़े-तीन साल पहले जब नरेन्द्र मोदीजी मेरे शहर वारणसी से सांसद चुने गए और तत्पश्चात् प्रधनमंत्री बने तब नगरवासियों को उम्मीद बंधी कि शहर के हालात बदलेंगे, शहर दुर्व्यवस्था के रोग से मुक्त होगा, गंदगी से निजात मिलेगी, अव्यवस्थित यातायात का दौर समाप्त होगा, इत्यादि। और भी न जाने क्या-क्या उम्मीदें लोग पाल बैठे थे। साड़े-तीन साल के इस अंतराल के बाद यह निश्चित हो चुका है कि यहां कुछ भी बदलने वाला नहीं। जब योगी आदित्यनाथ ने राज्य की सत्ता संभाली तब एक बार फिर लगा कि पहले नहीं तो अब चीजें बदलेंगी, क्योंकि पहले प्रशासनिक तंत्र समाजवादी पार्टी के हाथ में था जिसका मोदीजी के प्रति विरोधात्मक रवैया रहा है। लेकिन योगीजी का राज भी कोई सुधार नहीं ला पाया है, और मुझे आगे भी उम्मीद नहीं है। कुछ लोग गंगाजी और वरुणा नदी के किनारों/घाटों तथा दो-चार पर्यटक स्थलों की साफ-सफाई और रंगरोगन की बात करते हुए कह सकते हैं कि कुछ तो हो रहा है। मेरा सवाल है कि शहर के अंदरूनी हिस्सों की व्यवस्था तो जस की तस या पहले से बदतर ही तो है।
बीते रविवार के दिन घटित एक वाकये का जिक्र करता हूं। यह एक बानगी है जिससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात वाकई कितने गंभीर हैं। हमें (पत्नी एवं मैं) मुंबाई जाने के लिए प्रातः 10:25 बजे की रेलगाड़ी पकड़नी थी। हम करीब सवा घंटा पहले रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुए। मैंने एक ऑटो-रिक्शा (संक्षेप में ऑटो) तय किया और हम घर से चल दिए। रास्ते में ऑटो वाले से मार्ग में जाम के हालातों पर चर्चा करने लगे, क्योंकि अपने इस शहर वाराणसी में प्रायः हर रोज हर मुख्य मार्ग पर जाम की स्थिति बनी रहती है। हम तो साल में मुश्किल से एक-दो बार शहर की तरफ निकलते हैं, इसलिए इस बारे में अपना अनुभव खास नहीं है। किंतु स्थानीय अखबार में एतद्विषयक समाचार पढ़ने को मिलते ही रहते हैं। ऑटो वाले ने हमें बताया कि उस दिन रविवार होने के कारण काफी राहत रहेगी और हम 20-25 मिनट में स्टेशन पहुंच जाएंगे। हमने पूछा, “और दिनों क्या हालत रहती है?”
“और दिनों मैं ऑटो नहीं चलाता। केवल इतवार को ही ऑटो निकालता हूं।” उसका सीधा जवाब था।
“केवल इतवार? ऐसा क्यों? और दिनों करते क्या हो फिर?” हमने सवाल दागा।
“मैं फलां-फलां एजेंसी (हमें नाम याद नहीं) में सेक्योरिटी का काम करता हूं। इतवार को मेरी छुट्टी रहती है। इसलिए उस दिन ऑटो निकालता हूं, और तबियत से ऑटो दौड़ाता हूं। डेढ़-दो हजार रुपये की कमाई कर लेता हूं।”
उसके बारे में हमारी जिज्ञासा बढ़ गई। उससे पूछा, “यह ऑटो किसी और का है क्या? इसके कागज-पत्तर तो दुरुस्त हैं न?”
“ऑटो तो मेरा ही है। शौकिया खरीद लिया और मौके-बेमौके काम देता है। लेकिन केवल इतवार को ही चलाता हूं। हफ्ते के छः दिन तो सिक्योरिटी का ही काम करता हूं, क्योंकि उसमें आराम है। ज्यादा काम नहीं रहता। रात में तबियत से सोने को मिल जाता है।” जवाब मिला।
जिज्ञासावश हमने पूछ लिया, “ड्राइविंग लाइसेंस तो रखे हो न?”
“नहीं अभी लाइसेंस नहीं है। छः महीने बाद बनाऊंगा, जब मेरी उम्र 18 पूरी हो जाएगी।”
उसकी बात सुन हमारा माथा ठनका। पहले मालूम होता तो उसे भाड़े पर न लेते। लेकिन तब आधे रास्ते में उसे छोड़ना भी संभव नहीं लगा। हमने पूछा, “क्यों भई, बिना लाइसेंस के चलाना जोखिम भरा नहीं है? रास्ते में पुलिस वाले पकड़ सकते हैं!”
“जेब में दो-चार सौ रुपये तो पड़े ही रहते है। दो सौ रुपये हाथ में टिका देंगे। उन्हें वसूली करने से मतलब। कौन-सा वाहन सीज़ (थाने में जमा) करते हैं जो डर लगे।”
“फिर भी लाइसेंस हो तो पैसा नहीं देना पड़ेगा। और कानून भी तो मानना चाहिए।”
“बनारस में कानून कौन मानता है। जहां तक पुलिस वालों को देने का सवाल है, वह तो करना ही पड़ेगा। जब वसूली करनी होती है तब दुरुस्त कागज-पत्रों के होते हुए भी वसूली करते हैं।”
उसकी बातें सुन हम निरुत्तर हो गए। आगे बोलें भी तो क्या बोलें! आए दिन अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि पुलिस वसूली करती है और कानून के कार्यान्वयन में कोई रुचि नहीं लेते है। उस ऑटो-रिक्शा वाले की बातें सुनकर लगा कि हालात वाकई खराब हैं।
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