वह पुलिस महकमे से प्रतिनियुक्ति पर आया एक सीबीआई अधिकारी था । अपने कार्य के प्रति समर्पित निष्ठावान कर्मठ अधिकारी था वह । मुश्किल से डेड़-दो साल हुए होंगे उसे नयी संस्था में आए हुए । वह चाहता था कि जिस जांच में उसे लगाया गया हो उसे पूरा करने का उसे अवसर मिले । वह समझ नहीं पा रहा था कि इस अल्पकाल में ही विभाग के भीतर उसके दो तबादले क्यों हो गये । उच्चाधिकारी से पूछने पर दोनों बार यही जवाब मिला कि उसकी जरूरत दूसरी जगह महसूस की जा रही है । यह उसकी योग्यता का प्रमाण था या कुछ और यह उसके लिए समझ से परे था । अस्तु, आदेश मानना उसका कर्तव्य था, अतः वह आधा-अधूरा कार्य छोड़ दूसरी जांच में मनोयोग से जुट जाता । अब वह रसूखदार और चर्चित किसी राजनेता की आपराधिक संलिप्तता की जांच में जुटा था । उसे दाल में बहुत कुछ काला दिख रहा था और वह आशान्वतित था कि जांच के सार्थक परिणाम शीघ्र ही उसके हाथ लगेंगे । किंतु आज उसके उच्चाधिकारी ने जो कहा उससे उसे मानसिक कष्ट के साथ निराशा हो गयी ।
शाम को वह घर पहुंचा और सोफ़े के कोने पर हत्थे के सहारे बैठ गया । आम दिनों की तरह वह हाथमुंह धोकर तरोताजा होने वाशबेसिन या बाथरूम नहीं गया । थोड़ी देर में पत्नी उसके लिए हल्के नाश्ते के साथ चाय बना के ले आई । उसका मुरझाया चेहरा देख पत्नी ने पूछा, “काम के बोझ से तुम थके-हारे तो अक्सर दिखते हो, लेकिन आज तुम्हारे चेहरे पर परेशानी के भाव उभर रहे हैं । तबियत तो ठीक है न ? कोई खास बात तो नहीं हो गयी आफ़िस में ?”
पत्नी उसकी बगल में आकर बैठ गई । वह कुछ क्षणों तक शांत रहा । फिर प्रश्न भरी निगाह से देख रही पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए बोला, “हां कुछ ऐसा ही हो गया आफिस में ।” और पुनः शांत होकर सुनी आंखों से छत की ओर ताकने लगा । पत्नी असमंजस में थी कि कुछ आगे पूछे या उसे अपनी बाहों में भरकर उसके उद्वेग को किंचित दूर करे ।
“लो, चाय पी लो, ठंडी हो रही होगी ।” कहते हुए पत्नी ने उसके हाथ में चाय का प्याला पकड़ाया । उसने चाय की दो-चार चुस्कियां जब ले लीं तो पत्नी की हिम्मत थोड़ी बढ़ी कि आगे कुछ पूछे । “बताओ कुछ हुआ क्य़ा आफिस में ? मैं आफ़िस की समस्या का हल नहीं दे सकती, किंतु मुझे बताके तुम अपना मन हल्का तो कर ही सकते हो न !”
चाय की चुस्कियों और पत्नी के सान्निध्य ने अब तक उसके मन का बोझ कुछ कम कर दिया था । उसने कहना शुरू किया, “आज मेरे बॉस ने मुझे बुलाया और मुझसे कहा कि मैं जांच का काम धीमी गति से करूं । जल्दी से जल्दी परिणाम पाने की कोशिश मैं न करूं और मामले को कुछ हद तक लटकाये रहूं । मैं उनकी बात मानना नहीं चाहता था । मेरा सोचना है कि ऐसा करना मेरे व्यवसाय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो सकता है और न ही दायित्वों के निर्वाह में ढीला रवैया मुझे व्यक्तिगत तौर पर स्वीकार्य है । मैंने अपना पक्ष रखते हुए उनसे जानना चाहा कि वे ऐसी सलाह क्यों दे रहे हैं । पहले तो वे टालते रहे फिर बोले कि ऐसा अलिखित निर्देश ऊपर से आया है । ऊपर का मतलब मंत्री के स्तर से है यह मैं समझ गया । फिर वे कहने लगे, ‘मुझे मालूम है कि यह बात तुम्हें पसंद नहीं । मुझे भी यह सब पसंद नहीं, परंतु अनुभव ने मुझे सिखा दिया है कि यहां ऐसा कुछ चलता रहता है । चुनाव नजदीक हैं उस समय यह मुद्दा सत्तापक्ष के काम आ सकता है यह मेरा अनुमान है । राजनेताओं के मामले ऐसे ही लटकाए रखे जाते हैं । न चाहते हुए भी हमें बहुत कुछ करना पड़ता है ।’ उसके बाद मैंने अधिक बात नहीं की और मैं अपने कार्यालय लौट आया । तुम्हें मालूम है ऐसी स्थिति में मुझे तकलीफ़ होती है ।”
“हां, मुझे मालूम है । इतना तो तुम्हें समझती ही हूं । मुझे भी बहुत-सी बातें ठीक नहीं लगती हैं, पर कर भी क्या सकते हैं ? बहुत-से मौकों पर समझौते करने पड़ते है । परिवार के भीतर, मित्र-परिचितों के स्तर पर, राह चलते अजनबियों के बीच, बताओ हम कहां-कहां समझौते नहीं करते ? इतना दुःखी न होओ । … चलो टीवी चलाती हूं, आज की खबरें सुनो ।” पत्नी ने अपने तरीके से उसे आश्वस्त करने का प्रयास किया । वह टीवी ऑन करने उठी तो उसने उसका हाथ खींचकर वापस अपने साथ बिठा लिया ।
“फ़र्क है । सामाजिक जीवन में हमारे समझौते हमारी व्यक्तिगत लाभहानि की कीमत पर होते हैं, हम अपनी सुख-सुविधा या वैचारिक प्रतिबद्धता दांव पर लगाते हैं। लेकिन शासन-प्रशासन में समझौतों का मतलब है देशहित की अनदेखी करना, अपने दायित्व को न निभाना जिनके लिए देश से आर्थिक लाभ ले रहे होते हैं । इस फ़र्क को समझो ।” उसने अपनी धारणा स्पष्ट की ।
उसने आगे कहना आरंभ किया, “इससे तो अच्छा है अपने राज्य में रहकर ही काम करना । जब शासन में बैठे लोग किसी से काम नहीं लेना चाहते हैं तो उसे ऐसी जगह भेज दिया जाता है जहां बंधा-बंधाया काम (रूटीन वर्क) करना काफ़ी होता है । तब इस बात की ग्लानि नहीं होती है कि मैं अपना दायित्व नहीं निभा रहा हूं । लेकिन इस महकमे में तो किसी न किसी जांच से जुड़ना ही होता है और तमाम दबाव झेलने होते हैं ।”
उस रात उसे काफ़ी देर तक नींद नहीं आई । वह सोचने लगा कि जिस संस्था में किसी न किसी बहाने दायित्व निभाने से रोका जाये वहां टिके रहना चाहिए अथवा नहीं ।
दूसरे दिन रोज की भांति वह वह कार्यालय के लिए तैयार हुआ । पत्नी ने प्रातःकालीन नाश्ता कराया और दोपहर के भोजन के लिए लंचबाक्स थमाते हुए बोली, “अगर शाम को जल्दी लौट सको तो कुछ देर के लिए कहीं घूमने निकल चलेंगे ।” वह चुप रहा, कोई जवाब नहीं दिया ।
घर से निकलते-निकलते वह पत्नी से बोला, “मेरी प्रतिनियुक्ति निरस्त करके मुझे अपने मूल राज्य वापस भेज दिया जाए इस आशय का निवेदन मैं आज कार्यालय को सोंप दूंगा ।” – योगेन्द्र जोशी