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अटैचियों को जंजीर से बांधकर सुरक्षित रखने का असमंजस

 

रेलगाड़ी से यात्रा करते समय बहुत-से यात्रियों के सामने यह समस्या प्रायः आ खड़ी होती है कि रात के समय अटैचियों-बैगों को कैसे सुरक्षित रखा जाये । उत्तर भारत में यह समस्या बहुत आम है, खास तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में । जब कोई  यात्री रात में गहरी निद्रा में सोया रहता है, तो उसे यह डर बना रहता है कि चोर-उचक्के डिब्बे में घुसकर उसके सामान पर चुपचाप हाथ साफ कर सकते हैं । सामान सुरक्षित रहे इस प्रयोजन के लिए अक्सर सिकड़ी (जंजीर) का प्रयोग किया जाता है । सामान को शायिका (बर्थ) के नीचे लगे छल्ले से सिकड़ी के सहारे बांध दिया जाता है । मैं स्वयं इसी विधि से सामान सुरक्षित रखता हूं; भरोसा नहीं रहता है न कि सामान सुरक्षित रहेगा !

करीब तीन साल पहले मैं पत्नी के साथ पुद्दुचेरी (पांडिचेरी) पर्यटक के तौर पर गया । हमें हैदराबाद होकर जाना था । वहां से हम पूर्वनिर्धारित आरक्षण के अनुसार रात्रिकालीन रेलगाड़ी द्वारा चेन्नै के लिए रवाना हुए । नौ बजे के बाद हमारा सोने का उपक्रम आरंभ हुआ । सोने से पहले सदा की तरह सोचा कि अपने अटैची-बैग को शायिका के नीचे सिकड़ी से बांधकर सुरक्षित कर लिया जाए । साथ लाए गए बैग से हमने सिकड़ी भी निकाल ली । लेकिन तब हमें असमंजस का एहसास होने लगा । दरअसल डिब्बे में चढ़े हुए या चढ़ रहे अन्य यात्रियों को हम  देख रहे थे कि वे अपना-अपना सामान शायिकाओं के नीचे सरकाते हुए निश्चिंत होकर अपनी-अपनी शायिका पर सोने जा चुके हैं या जा रहे हैं । कोई ऐसा यात्री नजर नहीं आया जिसने सिकड़ी से सामान बांधा हो ।

मैंने पत्नी से कहा, “यहां कोई भी अपने सामान के लिए चिंतित नहीं दिखता । उन लागों को देखते हुए सिकड़ी से सामान बांधने का ख्याल मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा है । तुम्हारा क्या सोचना है ?”

वे बोलीं, “हां, सामान चेन करने में अजीब-सा तो मुझे भी लग रहा है । ऐसा लगता है कि यहां सामान सुरक्षित रखने के लिए सिकड़ी वाला तरीका कोई नहीं अपनाता है । ऐसे में कोई देखेगा तो मन ही मन हंसेगा ।”

“तब चेन करने का ख्याल ही छोड़ दिया जाये । उसमें कोई जोखिम नहीं लगता ।” मैंने प्रत्युत्तर में कहा ।

उन्होंने हामी भरी और अटैची-बैग को हमने शायिका के नीचे यूं ही छोड़ दिया । अगली सुबह हम सकुशल चेन्नै पहुंच गए ।

बहुत-सी बातें हैं जिनके सापेक्ष मैंने दक्षिण भारत को उत्तर भारत से बेहतर पाया है । उत्तर भारतीयों को उनसे कुछ सीखना चाहिए । इस कथन पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, किंतु हकीकत तो हकीकत ही होती है । – योगेन्द्र जोशी

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चालीस साल पहले हुआ था हिन्दी से जुड़ा एक अनुभव मद्रास (चेन्नै) में

मोदी सरकार ने हाल में राजभाषा हिन्दी के प्रयोग पर बल दिया है । इस नई सरकार के “हिन्दी प्रेम”के प्रति कई राजनेताओं ने विरोधात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की है । प्रखर विरोध तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों के शीर्षस्थ नेताओं की ओर से देखने को मिला है । अन्य राज्यों के नेताओं ने नाखुशी तो व्यक्त कर दी, लेकिन उनका विरोध जबर्दस्त नही कहा जा सकता है । वस्तुतः तमिल राजनीति हिन्दी विरोध पर टिकी है । वहां के नेतागण इसे अपनी तमिल अस्मिता से जोड़ते हैं । संविधान सभा में जब हिन्दी को राजभाषा बनाने की बात की जा रही थी तब भी यह विरोध था और आज भी है । दक्षिण भारत की अपनी हालिया यात्राओं में मैंने अनुभव किया है कि हिन्दी के प्रति उनके रवैये में बदलाव आता जा रहा है ।

हिन्दी विरोध की बात पर मुझे 1973 में संपन्न दक्षिण भारत की अपनी यात्रा का अनुभव याद आता है । जून-जुलाई का समय था । तब मैं अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में नया-नया प्रविष्ट हुआ था । मुझे उच्चाध्ययन से संबंधित कार्य हेतु बेंगलूरु-स्थित आईआईएससी संस्थान में एक माह के लिए ठहरना था । तब बेंगलूरु बंगलोर कहलाता था ।

रेलगाड़ी से बेंगलूरु पहुंचने के लिए मैं पहले चेन्नै (तब मद्रास) पहुंचा रात्रि प्रथम प्रहर । मुझे अगले दिन प्रातःकालीन गाड़ी से बेंगलूरु जाना था । वयस्क जीवन के उस आंरभिक काल तक मुझे लंबी यात्राओं, विशेषतः दक्षिण भारत की यात्राओं, का कोई अनुभव नहीं था । तब रेलगाड़ियों में आरक्षण कराना भी आसान नहीं होता था । किसी अन्य शहर से चेन्नै-बेंगलूरु का आरक्षण रेलवे विभाग तार (टेलीग्राम) द्वारा किया करता था जिसके परिणाम बहुधा नकारात्मक मिलते थे । लेकिन आजकल की जैसी भीड़भाड़ तब रेलगाड़ियों में होती भी नहीं थी ।

मैंने वह रात वहीं प्रतीक्षालय में बिताई, एक किनारे जमीन पर चादर बिछाकर । (प्रतीक्षालयों और प्लेटफॉर्मों पर सोते हुए रातें गुजारना भारतीय यात्रिकों के लिए आज भी आम बात है ।) कुछ ही देर में वहीं मेरे ही नजदीक एक प्रौढ़ सज्जन आकर आराम फरमाने लगे । नितांत अजनबी होने के बावजूद हम एक दूसरे की ओर मुखातिब हुए और कौन कहां से आया है और कहां जा रहा है जैसे सवालों के माध्यम से परस्पर परिचित होने लगे । यह भारतीय समाज की विशिष्टता है कि जब दो अपरिचित जन आसपास बैठे हों तो वे अधिक देर तक चुपचाप नहीं रह सकते हैं और किसी भी बहाने परस्पर वार्तालाप पर उतर आते हैं । पाश्चात्य समाजों में ऐसा कम ही देखने को मिलता है । हमारे शहरी जीवन से यह खासियत अब गायब होने लगी है ।

उन सज्जन को जब मैंने अपने शहर और गंतव्य के बारे में अंगरेजी में बताया तो वे हिंदी में बात करने लगे । मैंने उनसे कहा, “मुझे लगता है कि इधर तो हिन्दी चलती नहीं, फिर भी आप अच्छी-खासी हिन्दी बोल ले रहे हैं । बताइए कहां से आ रहे हैं और किधर जा रहे हैं ।”

उनको जब मैंने अपने शहर और गंतव्य के बारे में अंगरेजी में बताया तो वे हिंदी में बात करने लगे । मैंने उनसे कहा, “मुझे लगता है कि इधर हिन्दी चलती नहीं, फिर भी आप अच्छी-खासी हिन्दी बोल ले रहे हैं । बताइए कहां से आ रहे हैं और किधर जा रहे हैं ।

उनका उत्तर था, “मैं केरला का रहने वाला हूं और कुछ देर बाद अपने कारोबार के सिलसिले में गुवाहाटी के लिए निकलूंगा । दरअसल मुझे कारोबार के सिलसिले में आसाम तक के कई राज्यों में जाना होता है । इन सभी जगहों पर कारोबारी बातें अंगरेजी के बदले हिन्दी में करना आसान होता है । सभी प्रकार के लोग मिलते हैं, कई ऐसे भी जो अंगरेजी में ठीक से नहीं बात कर सकते ।”

उस समय मैंने उनसे उनके कारोबार के बारे में पूछा या नहीं इसका ध्यान नहीं । मेरे लिए यह समझना अधिक अहम था कि सुदूर दक्षिण के दो पड़ोसी राज्यों, तमिलनाडु और केरला, में   हिन्दी के प्रति एक जैसा रवैया नहीं है । मैं चेन्नै स्टेशन पर यह देख चुका था कि हिन्दी में बात करने पर अधिकांश रेलवे कर्मचारियों के चेहरों पर तिरस्कार के भाव उभर आते हैं । मैंने उनसे कहा, “मैं मद्रास पहली बार आया हूं । यहां के हिन्दी-विरोध की बातें मैंने सुन रखी थीं, और इस यात्रा में उस विरोध का अनुभव भी कर रहा हूं । ऐसा विरोध तो केरला में भी होगा न ?”

“नहीं, ऐसा नहीं है । केरला के लोग व्यावहारिक हैं । रोजी-रोटी के लिए वे लोग देश के अलग-अलग हिस्सों तक पहुंचते हैं । आपने केरला की नर्सों को उत्तर भारत के अस्पतालों में भी देखा होगा । केरला के लोग जानते हैं हिन्दी से परहेज उनके हक में नहीं है ।”उनका उत्तर था ।

और कुछ समय बाद वे अपनी रेलगाड़ी पकड़ने चल दिए । इस दौरान उनसे अन्य कितनी तथा कैसी बातें हुई होंगी इसे आज ठीक-से बता पाना संभव नहीं । पर इतना जरूर कह सकता हूं कि ऊपर कही गईं बातें वार्तालाप का सारांश प्रस्तुत करती हैं । – योगेन्द्र जोशी

 

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रेलयात्रियों के बीच तू-तू-मैं-मैं और “यू शट अप”

          रेलगाड़ी से लंबी यात्रा करना बहुतों को उबाऊ लगता है, लेकिन मेरे लिए वह अधिकांश मौकों पर काफी दिलचस्प सिद्ध होता है । मैं अपने साथ यात्रा के दौरान विविध प्रकार की पढ़ने की सामग्री लेकर चलता हूं । बीच-बीच में बदलाव के लिए खिड़की के बाहर के दृश्य भी देख लेता हूं । चाय-कॉफी जैसे पेय अगर मिलते रहें तो यात्रा का आनंद बढ़ जाता है, और ऊब का सवाल नहीं के बराबर रह जाता है । अगर रेलगाड़ी के डिब्बे में उछल-कूद मचाने, हंसने-रोने में लगे छोटे-बड़े बच्चे मौजूद हों, अथवा ऐसे यात्री हों जो किंचित असामान्य हरकतों में लगे दिखें या रोचक वार्तालाप के नजारे पेश कर रहे हों, तो यात्रा का समय कैसे कट जाता है पता नहीं चलता । मैंने पाया है कि कुछ लोग अपनी निजी जानकारी भी साथी यात्रिकों के साथ साझा कर बैठते हैं, अन्यथा आम तौर पर समसामयिक राजनैतिक घटनाएं उनके बीच बहस का अच्छा-खासा विषय बन जाता है, जिसमें कब कौन भाग ले ले कहा नहीं जा सकता । और भी यात्रा के दौरान बहुत-कुछ देखने-सुनने को मिल जाता है । आगे मैं ऐसी ही एक घटना का जिक्र कर रहा हूं ।

चंद रोज पहले मैं अपनी सहधर्मिणी के साथ वाराणसी से मुंबई की एसी 2-टियर डिब्बे में बैठकर यात्रा कर रहा था । खिड़की से सटी ऊपर-नीचे की आरक्षित शायिकाएं (बर्थ) हमें मिलीं हुई थीं । सामने की चार बर्थों (ऊपर-नीचे मिलाकर) में से तीन पर एक ही परिवार के पति-पत्नी एवं उनकी युवा बेटी यात्रा कर रहे थे । उस परिवार की प्रौढ़ महिला नीचे की एक शायिका पर लेटकर झपकी ले रही थीं, जब कि सामने की शायिका उस समय कदाचित खाली थी । डिब्बे में अन्यत्र आरक्षित शायिकाओं वाली दो महिलाएं उस खाली शायिका पर बैठकर गपशप में मशगूल हो गई थीं । उन यात्रिकों ने हमारी ओर के पर्दे खींचकर थोड़ा फैला दिए थे । हम दोनों खिड़की के पास बैठे हुए पत्रिकाएं पढ़ने में व्यस्त हो गए थे ।

उस ओर से आने वाली आवाजें हमारे कानों पर पड़ तो रही थीं, किंतु हम उन पर खास ध्यान नहीं दे रहे थे । फिर कुछ समय बाद अनायास उधर से जोर-जोर से बोलने की आवाज आने लगी । हम समझ नहीं पाये कि माजरा क्या है, लेकिन तुरंत ही अंदाजा लग गया कि उस तरफ बैठे दोनों पक्षों के बीच पहले गरमागरम बहस और फिर उससे आगे बढ़कर तू-तू-मैं-मैं शुरू हो चुकी है । हुआ क्या यह जानने की इच्छा हमारे मन में भी जगी । मामले के बारे में हम अनुमान ही लगा सकते थे, क्योंकि उन लोगों से सीधे-सीधे पूछना किसी को भी उचित या अस्वीकार्य लग सकता था । उनकी आपसी बहस पर ध्यान देने पर हमें समझ में आया कि वहां बैठे परिवार की युवती ने अन्य दोनों महिलाओं से शायद यह कहा, “आप लोग हौले-से बातें करते तो मेहरबानी होती; देखिए इधर मेरी मां भी सो रही हैं ।”

उसका यह निवेदन उन महिलाओं को शायद पसंद नहीं आया । उन्होंने प्रतिक्रिया में शायद यह कहा, “आप पहले अपनी मां के खर्राटे बंद क्यों नहीं करवा रही हैं ? क्या दूसरों को उससे परेशानी नहीं होती ?”

 “देखिए सोते हुए व्यक्ति का अपने खर्राटों पर कोई वश नहीं चलता, लेकिन हौले से बातें करना तो आपके वश में है न ? दोनों बातों की तुलना ठीक नहीं ।”

हमारी नजर में मामला बहुत गंभीर नहीं था । परंतु मामला तब बिगड़ ही जाता है जब लोगों के अहम को चोट लगती है । “सामने वाले की यह हिम्मत कि हमें टोके !” का भाव बहस के दौरान लोगों के मन में अक्सर पैदा हो जाता है और एक-दूसरे की बात समझने से वे इंकार कर बैठते हैं । शायद ऐसा ही कुछ तब हुआ होगा और बात तू-तू-मैं-मैं तक जा पहुची ।

उस ‘झगड़े’ का दिलचस्प पहलू यह रहा कि दोनों ही पक्ष जल्दी ही अंगरेजी पर उतर आए, यानी तू-तू-मैं-मैं तुरंत ही अंगरेजी में होने लगी । एक पक्ष की आवाज सुनाई दी, “यू लैक मैनेरिज्म; लर्न दैम ।”

दूसरे पक्ष के शब्द सुनाई दिये, “फर्स्ट यू योअरसेल्फ लर्न मैनेरिज्म बिफोर टेलिंग अदर्स ।”

कुछ देर ऐसे ही चलता रहा । मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी । हम भारतीयों की खासियत यह है कि जब कभी हमें दूसरों पर गुस्सा आता है तो हम अपनी भावना व्यक्त करने में भी अंगरेजी की मदद लेते हैं । अंगरेजी में गुस्से का इजहार अधिक प्रभावी होता है इस विचार से शायद अधिकतर ‘शिक्षित’ भारतीय ग्रस्त रहते हैं । मैं समझता हूं कि कई लोगों के लिए अंगरेजी बोलना दूसरे पर रॉब झाड़ने या उसे स्वयं को हीन अनुभव कराने में मददगार होता है । या हो सकता है वे अनजाने ही अंगरेजी पर उतर आते हों ।

उस घटना के अगले दो-चार मिनट मुझे और भी अधिक रोचक लगे । उन दो महिलाओं के साथ का एक किशोर भी अगल-बगल के किसी शायिका से अवतरित होकर उस कांड में शामिल हो गया । वह बीच-बीच में “यू शट अप !” के शब्द बोलकर दूसरे पक्ष को चेतावनी देने लगा । ऐसा करते समय वह हर बार अपने दांये हाथ के अंगूठे तथा मध्यमा अंगुली से चुटकी बजाता और तर्जनी को दूसरे पक्ष की ओर तान देता । उसका मुख भी तमतमा उठता । उसके हावभाव देख हम मन ही मन खूब हंसे ।

कुछ देर तक इस तमासे को देखने के बाद अपनी श्रीमतीजी अधीर हो बैठीं और उठकर सामने के पर्दे के पास चली गईं । उन लोगों की ओर मुखातिब हो वे बोलीं, “देखिए, आप दोनों ही को मैनरिज्म सीखने की जरूरत है । एक छोटी-सी बात को लेकर झगड़ना कौन-सा मैनरिज्म है ? कंपार्टमेंट में और यात्री भी बैठे हैं, उनके सामने तमासा खड़ा करना बुद्धिमानी नहीं है । अरे भई, यात्रा में कई प्रकार की दिक्कतें हो सकती हैं । अक्सर थोड़ा-बहुत एड्जस्ट करना पड़ जाता है ।”

संयोग से उन्होंने उक्त बातों पर आपत्ति नहीं जताई । बहुत संभव है कि हमारी बढ़ी उम्र का लिहाज किया हो । कारण जो भी हो, दोनों पक्ष शांत जरूर हो गए । – योगेन्द्र जोशी

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