रेलगाड़ी से लंबी यात्रा करना बहुतों को उबाऊ लगता है, लेकिन मेरे लिए वह अधिकांश मौकों पर काफी दिलचस्प सिद्ध होता है । मैं अपने साथ यात्रा के दौरान विविध प्रकार की पढ़ने की सामग्री लेकर चलता हूं । बीच-बीच में बदलाव के लिए खिड़की के बाहर के दृश्य भी देख लेता हूं । चाय-कॉफी जैसे पेय अगर मिलते रहें तो यात्रा का आनंद बढ़ जाता है, और ऊब का सवाल नहीं के बराबर रह जाता है । अगर रेलगाड़ी के डिब्बे में उछल-कूद मचाने, हंसने-रोने में लगे छोटे-बड़े बच्चे मौजूद हों, अथवा ऐसे यात्री हों जो किंचित असामान्य हरकतों में लगे दिखें या रोचक वार्तालाप के नजारे पेश कर रहे हों, तो यात्रा का समय कैसे कट जाता है पता नहीं चलता । मैंने पाया है कि कुछ लोग अपनी निजी जानकारी भी साथी यात्रिकों के साथ साझा कर बैठते हैं, अन्यथा आम तौर पर समसामयिक राजनैतिक घटनाएं उनके बीच बहस का अच्छा-खासा विषय बन जाता है, जिसमें कब कौन भाग ले ले कहा नहीं जा सकता । और भी यात्रा के दौरान बहुत-कुछ देखने-सुनने को मिल जाता है । आगे मैं ऐसी ही एक घटना का जिक्र कर रहा हूं ।
चंद रोज पहले मैं अपनी सहधर्मिणी के साथ वाराणसी से मुंबई की एसी 2-टियर डिब्बे में बैठकर यात्रा कर रहा था । खिड़की से सटी ऊपर-नीचे की आरक्षित शायिकाएं (बर्थ) हमें मिलीं हुई थीं । सामने की चार बर्थों (ऊपर-नीचे मिलाकर) में से तीन पर एक ही परिवार के पति-पत्नी एवं उनकी युवा बेटी यात्रा कर रहे थे । उस परिवार की प्रौढ़ महिला नीचे की एक शायिका पर लेटकर झपकी ले रही थीं, जब कि सामने की शायिका उस समय कदाचित खाली थी । डिब्बे में अन्यत्र आरक्षित शायिकाओं वाली दो महिलाएं उस खाली शायिका पर बैठकर गपशप में मशगूल हो गई थीं । उन यात्रिकों ने हमारी ओर के पर्दे खींचकर थोड़ा फैला दिए थे । हम दोनों खिड़की के पास बैठे हुए पत्रिकाएं पढ़ने में व्यस्त हो गए थे ।
उस ओर से आने वाली आवाजें हमारे कानों पर पड़ तो रही थीं, किंतु हम उन पर खास ध्यान नहीं दे रहे थे । फिर कुछ समय बाद अनायास उधर से जोर-जोर से बोलने की आवाज आने लगी । हम समझ नहीं पाये कि माजरा क्या है, लेकिन तुरंत ही अंदाजा लग गया कि उस तरफ बैठे दोनों पक्षों के बीच पहले गरमागरम बहस और फिर उससे आगे बढ़कर तू-तू-मैं-मैं शुरू हो चुकी है । हुआ क्या यह जानने की इच्छा हमारे मन में भी जगी । मामले के बारे में हम अनुमान ही लगा सकते थे, क्योंकि उन लोगों से सीधे-सीधे पूछना किसी को भी उचित या अस्वीकार्य लग सकता था । उनकी आपसी बहस पर ध्यान देने पर हमें समझ में आया कि वहां बैठे परिवार की युवती ने अन्य दोनों महिलाओं से शायद यह कहा, “आप लोग हौले-से बातें करते तो मेहरबानी होती; देखिए इधर मेरी मां भी सो रही हैं ।”
उसका यह निवेदन उन महिलाओं को शायद पसंद नहीं आया । उन्होंने प्रतिक्रिया में शायद यह कहा, “आप पहले अपनी मां के खर्राटे बंद क्यों नहीं करवा रही हैं ? क्या दूसरों को उससे परेशानी नहीं होती ?”
“देखिए सोते हुए व्यक्ति का अपने खर्राटों पर कोई वश नहीं चलता, लेकिन हौले से बातें करना तो आपके वश में है न ? दोनों बातों की तुलना ठीक नहीं ।”
हमारी नजर में मामला बहुत गंभीर नहीं था । परंतु मामला तब बिगड़ ही जाता है जब लोगों के अहम को चोट लगती है । “सामने वाले की यह हिम्मत कि हमें टोके !” का भाव बहस के दौरान लोगों के मन में अक्सर पैदा हो जाता है और एक-दूसरे की बात समझने से वे इंकार कर बैठते हैं । शायद ऐसा ही कुछ तब हुआ होगा और बात तू-तू-मैं-मैं तक जा पहुची ।
उस ‘झगड़े’ का दिलचस्प पहलू यह रहा कि दोनों ही पक्ष जल्दी ही अंगरेजी पर उतर आए, यानी तू-तू-मैं-मैं तुरंत ही अंगरेजी में होने लगी । एक पक्ष की आवाज सुनाई दी, “यू लैक मैनेरिज्म; लर्न दैम ।”
दूसरे पक्ष के शब्द सुनाई दिये, “फर्स्ट यू योअरसेल्फ लर्न मैनेरिज्म बिफोर टेलिंग अदर्स ।”
कुछ देर ऐसे ही चलता रहा । मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी । हम भारतीयों की खासियत यह है कि जब कभी हमें दूसरों पर गुस्सा आता है तो हम अपनी भावना व्यक्त करने में भी अंगरेजी की मदद लेते हैं । अंगरेजी में गुस्से का इजहार अधिक प्रभावी होता है इस विचार से शायद अधिकतर ‘शिक्षित’ भारतीय ग्रस्त रहते हैं । मैं समझता हूं कि कई लोगों के लिए अंगरेजी बोलना दूसरे पर रॉब झाड़ने या उसे स्वयं को हीन अनुभव कराने में मददगार होता है । या हो सकता है वे अनजाने ही अंगरेजी पर उतर आते हों ।
उस घटना के अगले दो-चार मिनट मुझे और भी अधिक रोचक लगे । उन दो महिलाओं के साथ का एक किशोर भी अगल-बगल के किसी शायिका से अवतरित होकर उस कांड में शामिल हो गया । वह बीच-बीच में “यू शट अप !” के शब्द बोलकर दूसरे पक्ष को चेतावनी देने लगा । ऐसा करते समय वह हर बार अपने दांये हाथ के अंगूठे तथा मध्यमा अंगुली से चुटकी बजाता और तर्जनी को दूसरे पक्ष की ओर तान देता । उसका मुख भी तमतमा उठता । उसके हावभाव देख हम मन ही मन खूब हंसे ।
कुछ देर तक इस तमासे को देखने के बाद अपनी श्रीमतीजी अधीर हो बैठीं और उठकर सामने के पर्दे के पास चली गईं । उन लोगों की ओर मुखातिब हो वे बोलीं, “देखिए, आप दोनों ही को मैनरिज्म सीखने की जरूरत है । एक छोटी-सी बात को लेकर झगड़ना कौन-सा मैनरिज्म है ? कंपार्टमेंट में और यात्री भी बैठे हैं, उनके सामने तमासा खड़ा करना बुद्धिमानी नहीं है । अरे भई, यात्रा में कई प्रकार की दिक्कतें हो सकती हैं । अक्सर थोड़ा-बहुत एड्जस्ट करना पड़ जाता है ।”
संयोग से उन्होंने उक्त बातों पर आपत्ति नहीं जताई । बहुत संभव है कि हमारी बढ़ी उम्र का लिहाज किया हो । कारण जो भी हो, दोनों पक्ष शांत जरूर हो गए । – योगेन्द्र जोशी