मैं अपने कंप्यूटर डीलर के आफिस में बैठा हूं । उसके साथ मेरा संबंध कोई अढाई दशक पुराना है – उस काल से जब उसने एक युवा उद्यमी के तौर पर कंप्यूटर के क्षेत्र में कारोबार करना आरंभ किया था, और हम (मैं तथा मेरे अन्य सह-अध्यापक) अपने विश्वविद्यालय (बीएचयू) में कंप्यूटर पाठ्यक्रम की शुरुआत कर रहे थे । देश में तब कंप्यूटर संस्कृति ने कदम रखे भर थे । तब से उस कंप्यूटर विक्रेता के साथ हम लोगों के संबंध बने हुए हैं । ये बातें कहना मुझे प्रासंगिक लगीं इसलिए बता रहा हूं । हां तो हम दोनों वार्तालाप में मग्न हैं । तभी एक भावी खरीददार उनके कार्यालय में पहुंचता है । विक्रेता उस आगंतुक से परिचित है ऐसा मुझे उन दोनों की आपसी बातचीत से लग रहा है ।
वह व्यक्ति विक्रेता से पूछता है, “आप क्या जीरॉक्स मशीन सप्लाइ कर सकेंगे ? ऐसी मशीन जो जीरॉक्स के साथ प्रिंटिंग, स्कैनिंग आदि भी कर सके ?”
“आपका मतलब है ऑल-इन-वन किस्म की मशीन ? हां मिल जाएगी ।” विक्रेता का जवाब है । किस कंपनी की कितने में मिलेगी इसका मोटा हिसाब भी वे बताते हैं । आजकल बाजार में ऐसी मशीनें आ चुकी हैं ।
“दरअसल मेरे फलां अध्यापक ने आपके पास भेजा है जानकारी जुटाने के लिए । उनके पास कुल करीब लाख-एक की रिसर्च ग्रांट है । उसी में जीरॉक्स मशीन के साथ एक डेस्क-टॉप भी लेना है । हो जाएगा न ?”
“हां इतने के भीतर दोनों मिल जाएंगे ।”
“और कुछ कमिशन …।”
“वह… अच्छा… देख लिया जाएगा…, कोशिश करेंगे ।” किंचित् अस्पष्ट-सा जवाब दिया जाता है । दो-चार अन्य बातें भी दोनों के बीच होती हैं । फिर वह आदमी चला जाता है । उसके चले जाने पर कंप्यूटर विक्रेता मुझसे बोलते हैं, “देखा आपने ? खुलकर मांग रखते हैं कमिशन की । विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं । आप अंदाजा लगा ही सकते हैं कि अच्छी-खासी तनख्वाह मिलती होगी । फिर भी मांग रखते हैं कि हमारा भी कुछ हिस्सा होना चाहिए … ।” तनिक चुप्पी के बाद वे आगे कहते हैं, “हम भी क्या करें ? आजकल ऐसे खरीदारों की कमी नहीं है । मना करें तो बिजनेस पर असर पड़ता है । मतलब यह कि मैं और मेरे कर्मचारी सभी प्रभावित होते हैं ।”
मैं उनकी मजबूरी समझ रहा हूं । उन्हें तो बिजनेस करते रहना है । जो आदमी अच्छे वेतन, तमाम भत्तों एवं भविष्य की पेंशन के साथ आर्थिक सुरक्षा भोग रहा हो वही जब कदाचरण पर तुल जाए तब वह क्या करे जिसके स्वयं तथा कर्मचारियों के पास सुरक्षित भविष्य की कोई गारंटी नहीं ? मैं जिज्ञासावश पूछ लेता हूं, “कहां के अध्यापक हैं वे जिनका जिक्र हो रहा था ?” ।
“काशी विद्यापीठ ।” जवाब मिलता है ।
विद्यापीठ! यानी वाराणसी के तीन सरकारी विश्वविद्यालयों में से एक । आर्थिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हमारे बीच कुछ देर तक बातचीत चलती है । बीच-बीच में किसी के आने से व्यवधान भी पड़ता रहता है । वार्तालाप के दौरान वे कहते हैं, “बीएचयू में आज भी यह सब नहीं चलता है । इक्का-दुक्का कोई मामले हों तो हों । आपके फिजिक्स विभाग के साथ पिछले पच्चीस-एक साल से मेरा बिजनेस चल रहा है, किंतु आजतक किसी के साथ ऐसी बात नहीं हुई ।”
“मुझे बीएचयू (फिजिक्स विभाग) छोड़े तो सात साल हो चुके हैं । इस समय वहां के हाल क्या हैं कह नहीं सकता, लेकिन मेरे कार्यकाल के समय स्थिति ठीक थी । अब तो कुल मिलाकर सभी जगह गिरावट का दौर चल रहा है । कोई चारा नहीं है ऐसा लगता है मुझे । ”
“भ्रष्टाचार का वाइरस तो हम लोगों के खून में घुल चुका है, सर! जिनसे इलाज की उम्मींद की जानी चाहिए उनके खून में भी ।”
“हो सकता है ।” कहते हुए मैं उठता हूं और उसके आफिस से लौट आता हूं । सोचने लगता हूं कि समाज की यह बीमारी क्या वाकई में लाइलाज है । जब विश्वविद्यालय का अच्छाखासा खातापीता शिक्षक तक इस मानसिकता पर उतर आया हो तो औरों के क्या हाल होंगे ? – योगेन्द्र जोशी