हम डिजिटल तकनीकी के युग में जी रहे हैं। और इस युग की सबसे बड़ी खासियत है स्मार्टफोन नामक युक्ति की उपलब्धता। स्मार्टफोनों की कीमत शुरुआती दौर में इतनी अधिक हुआ करती थी कि उसे खरीदने से पहले आदमी दस बार सोचता था। लेकिन जल्दी ही उसके सस्ते लेकिन कारगर मॉडल बाज़ार में आ गए। अब स्थिति यह है कि कई जनों के हाथों में अक्सर एक नहीं दो-दो तीन-तीन स्मार्टफोन भी दिख जाते हैं। इतना ही नहीं, स्मार्टफोन का आकर्षण छोटे बच्चों तक पहुंच चुका है। समाज के मध्यवर्ग में यह भी देखने को मिल रहा है कि जैसे ही नवजात शिशु के हाथ की अंगुलियां कोई भी चीज पकड़ने की सामर्थ्य पा जाते है वह भी मोबाइल से बतौर खिलौना खेलने लगता है। और जब तक वह खड़ा होना सीख पाता है तब तक वह अपने काम के वीडिओ भी देखने लगता है। बच्चों में पनप रहे मोबाइल के प्रति यह लगाव मेरी दृष्टि में जोखिम भरा है। लेकिन कई लोग अपने बच्चे की “स्मार्ट्नेस” से गर्वान्वित अनुभव करते हैं और स्मार्टफोन से उसे दूर रखने की जरूरत नहीं समझते हैं। इस स्थल पर मैं स्मार्टफोन के लाभ-हानि की विवेचना करने का प्रयास नहीं कर रहा हूं, बल्कि उससे जुड़ा एक अनुभव साझा कर रहा हूं।
कुछ दिनों पूर्व मैं पंजाब के शहर लुधियाना से शताब्दी एक्सप्रेस नामक (चेयरकार) रेलगाड़ी द्वारा नई दिल्ली आ रहा था। मैं गाड़ी के डिब्बे में गलियारे से लगी हुई पहली पंक्ति की सीट पर बैठा था और उसी पंक्ति में गलियारे के दूसरी तरफ तीनों सीटों पर दो महिलाएं और दो बच्चे बैठे थे। छोटा ब्च्चा कोई ५ साल का रहा होगा और उससे बड़ी बच्ची, अनुमानतः उसकी बहिन, डेढ़-दो साल बड़ी रही होगी।
बच्चों की मां के पास एक स्मार्टफोन था। गाड़ी के प्रस्थान करने के थोड़ी देर बाद छोटे बच्चे ने अपना मनपसंद वीडियो देखने के लिए मां से स्मार्टफोन हथिया लिया। जब बड़ी बहिन ने देखा कि स्मार्टफोन पर भाई ने कब्जा जमा लिया है तो उसे लगा कि फोन के प्रयोग का अधिकार उसे भी मिलना चाहिए। थोड़ी देर तक उसकी नजर फोन पर चल रहे वीडियो पर बनी रही। उसके हावभावों से लग रहा था कि उसे वह वीडियो उबाऊ लग रहा है। अंततः अधीर होकर उसने बहलाते-फुसलाते हुए भाई से स्मार्टफोन छीन लिया और अपने मन का वीडियो चलाने के लिए उसके ऊपर उंगलिया फेरना शुरू कर दिया। इससे छोटे भाई का रोना-गाना आरंभ होना स्वाभाविक था। मां ने उससे स्मार्टफोन वापस लेकर भाई को सौंप दिया। अब रोने-चीखने की बारी बहिन की थी।
उस मां की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे दोनों को शांत करे। उसने स्मार्टफोन बच्चों से लेकर अपने पर्स में रख लिया। किंतु ऐसा करना कारगर नहीं रहा। दोनों ने रोना शुरू कर दिया। उसने स्मार्टफोन पर्स से निकालकर एक ऐसा वीडिओ खोजा जो दोनों बच्चों को बहला सके। दोनों ने मिलकर हाथ में फोन लिया और वीडियो देखते हुए शांत हो गए। तब कुछ समय के लिए शान्ति छा सकी।
बच्चों की चीख-पुकार सुनना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। आसपास के यात्रियों की नींद में या उनके पत्र-पत्रिका पढ़ने में उनके रोने-गाने से अवश्य ही खलल पड़ रहा होगा। लेकिन बच्चों की जिद के सामने भला कोई कर भी क्या सकता था? गतंव्य तक पहुंचने का इंतिजार सभी को ही था।
निःसंदेह बच्चों की उस हरकत को देखना कुछ हद तक दिलचस्प भी लग रहा था। मैं सोच रहा था कि स्मार्टफोन किस कदर बच्चों के आकर्षण की चीज बनता जा रहा है। मुझे तो यह सब भविष्य के खतरे की ओर संकेत करता हुआ-सा दिख रहा था। ये बच्चे आने वाले समय में क्या आत्मसंयमी हो सकेंगे? क्या वे एकाग्रचित्त हो पाने की कला सीख पाएंगे? क्या इन युक्तियों पर उपलब्ध होने वाले इलेक्ट्रॉनिक यानी कंप्यूटर खेलों से अपने को अलग रख पाएंगे? इस प्रकार के अनेक प्रश्न मेरे मन में उठने लगे। – योगेन्द्र जोशी