राह चलते यदाकदा ऐसा कुछ अनुभव में आ जाता है जो मेरे सामने मानव व्यवहार से जुड़े तमाम सवाल खड़े कर देता है । हाल ही में एक रिक्शा चालक ने उसके साथ घटी घटना की बात मुझे बताई जिसे सुन मैं सोचने लगा कि क्योंकर लोग इतने अनुदार या कठोर होते हैं ।
मेरी पत्नी और मैं एक वैवाहिक समारोह में शामिल होने के लिए दो-चार दिनों के लिए उत्तराखंड राज्य के हल्द्वानी शहर गये हुए थे । उस दौरान एक दिन अपने एक रिश्तेदार से मुलाकात करने के बाद हम दोनों अपने टिकने के स्थान लौट रहे थे तब रात के करीब साड़े-आठ पौने-नौ बजे होंगे । अपने गंतव्य तक पैदल चलने पर हमें पर्याप्त समय लगेगा यह सोचते हुए शहर के मुखानी नामक चौराहे पर हमने एक रिक्शा तय किया । रिक्शा वाले से हमने पूछा कि क्या वह लालडाट तक चलेगा । (लालडाट संबंधित सड़क पर नगरवासियों के लिए सुपरिचित एक प्रमुख तिराहा है ।) बतौर भाड़ा 10 रुपये की मांग रखते हुए वह तैयार हो गया । चलते-चलते उसने एक सवाल भी मुझसे पूछ लिया, “बाबूजी, आपको क्या लालडाट पर ही उतरना है, या उसके आगे भी जाना है ?”
“जाना तो आगे है, लेकिन हम वहीं उतरकर पैदल चले जाएंगे । वहां से कोई दो-ढाई सौ कदम दूर होगा ।” मैंने जवाब दिया ।
रिक्शा चालक थोड़ी देर चुप रहा, फिर खुद ही बोल पड़ा, “बाबूजी, ये सवाल आपसे इसलिए पूछ रहा हूं कि बाद में लोग अक्सर थोड़ा और आगे चलने और फलां-फलां जगह उतारने के लिए कहने लगते हैं । उस समय दिक्कत हो जाती है; भाड़ा भी ठीक से नहीं मिल पाता है ।”
“हां ऐसा हो तो सकता है । सवारी हो या रिक्शा वाला कहां जाना है और कितना भाड़ा होगा ये बातें पहले ही ठीक-ठीक तय कर लेनीं चाहिए ।”
“कल मेरे साथ जो हुआ उससे मैंने भी यह सबक सीख लिया कि सवारी से साफ-साफ पूछ लेना जरूरी है । इसीलिए आपसे मैंने पूछा ।”
“कल क्या हुआ भई ?” मेरी पत्नी ने सहज जिज्ञासावश उससे पूछा ।
“लगभग यही टाइम रहा होगा कल रात जब एक ‘लेडीज’ सवारी मेरे रिक्शे पर बैठी । लालडाट पर उतरने की बात कही थी उसने । दस रुपया भाड़ा तय हुआ था । जब मैं लालडाट पहुंचा तो सवारी बोली कि थोड़ा आगे चलकर कुसुमखेड़ा चौराहा (अगला प्रमुख चौराहा) तक पहुंचा दो ।”
गौर करें कि अपने हिंदीभाषी क्षेत्र में महिलाओं का जब जिक्र होता है तो उन्हें ‘लेडीज’ शब्द से इंगित किया जाता है । एकबचन-बहुबचन में कोई फर्क नहीं रहता । अंगरेजी शब्द प्रयोग करना हमारी आदत हो चुकी है । बस हो या रेलगाड़ी या रिक्शा-टैक्सी, जनानी सवारी को लेडीज सवारी ही कहा जायेगा । खैर, रिक्शा वाला अपनी बात पूरी करता इससे पहले मैंने कहा, “तो तुमने कहा होगा कि रिक्शा तो यहीं तक के लिए तय है; इस पर सवारी झगड़ने लगी होगी । यही ना ?”
“नहीं सा’ब, मैंने सोचा रात का समय है, जनानी सवारी है, दूसरा रिक्शा खोजना पड़ेगा, चलो मैं ही वहां तक छोड़ देता हूं । लेकिन सवारी वहां पर उतरने के बजाय बोली, ‘थोड़ा आगे हनुमान मंदिर तक ले चलो, पांच रुपये और ले लेना ।”
“तुमने इस बार मना कर दिया होगा ।” मैंने अनुमान लगाया ।
“नहीं, मैं मान गया । परंतु वहां पहुंचने पर सवारी फिर बोली, ‘अरे दो कदम आगे लालडाट तक पहुंचा दो भैया ।’ मुझे उनका रवैया ठीक नहीं लग रहा था, पर भलमनसाहत में सोचा कि इतना और सही ।”
वह अपनी बात पूरी करता उससे पहले ही मैंने सवाल पूछा, “लालडाट ? लालडाट वहां कहा से आया, उसे तो पहले ही तुम छोड़ आए थे ?”
“पता नहीं क्यों आसपास के लोग उस चौराहे को भी लालडाट कहते हैं । कई लोग इस बात को नहीं जानते ।”
“अच्छा तो फिर क्या हुआ ?”
“हुआ क्या; वहां पहुचे तो सवारी उतरी और मुझे 10 का नोट थमाने लगी । मैंने लेने से इंकार किया और याद दिलाया कि 15 रुपया देने की बात तो आप ही ने की । एक तो ‘थोड़ा और आगे, थोड़ा और आगे’ कहते हुए हमको यहां तक ले आईं और अब 15 रुपया भी नहीं दे रहीं । तब तक वहां पर और लोग भी जमा हो गये । सबसे सामने बोलीं कि लालडाट का 10 रुपया तय हुआ था । मैं अपनी बात कहता रहा लेकिन किसी ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया । अंत में मैं उनका दिया 10 रुपया भी यह कहते हुए लौटाने लगा कि इसे भी रख लीजिए ।”
तब तक लालडाट का चौराहा आ चुका था । हमने रिक्शा रुकवाया और उतरते हुए बोले, “तब जाकर उन्होंने 15 रुपये दिए होंगे ।”
“नहीं सा’ब, उन्होंने उसे वापस अपने पर्स में रखा और चलती बनीं । तब मैंने सोचा कि आइंदा से अपनी सवारी से साफ-साफ तय कर लेना जरूरी है ।”
मेरी पत्नी ने उसे 10 के बदले 20 रुपये थमाते हुए कहा, “कल तुम्हें उस सवारी से 10 रुपये भी नहीं मिले, लो इसे हमारी तरफ से रख लो ।”
उसने 10 का अतिरिक्त नोट लेने से पहले तो मना किया, फिर हमारे जोर डालने पर उसे लेते हुए बोला, “आपको कहां जाना है ? मैं छोड़े देता हूं ।”
“हम तो यहां से पैदल जाने के विचार से ही चले थे, सो पैदल ही चले जाते हैं । ये तुम हमारी तरफ से रख लो । हम अपने मन से दे रहे हैं ।”
उसने हमारा शुक्रिया अदा किया । उस वाकये की परस्पर चर्चा करते हुए हम आगे बढ़ गए । रास्ते में पत्नी बोलीं, “उसने कोई मनगढ़ंत बात तो कही नहीं होगी । दुनिया में ऐसे लोग होते ही हैं जो दूसरे का दो पैसा मारने में भी नहीं हिचकते हैं ।” – योगेन्द्र जोशी