Category Archives: लघुकथा, कहानी, हिन्दी साहित्य

सुकून का एहसास

त्रिलोचन बाबू ने घर के मुख्य प्रवेशद्वार (गेट) के खटखटाये जाने की आवाज सुनी। आम तौर पर लोग गेट के बगल में लगी घंटी का बटन दबाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि कोई अजनबी होगा जिसे घंटी का अंदाजा न रहा हो। अखबार का हाथ में पकड़ा हुआ पन्ना फेंकते हुए-से अंदाज में उन्होंने सोफे के एक तरफ रखा और उठकर कमरे का दरवाजा खोलने पहुंचे। गर्दन बाहर निकालते हुआ गेट की तरफ देखा। बाहर कोई खड़ा था। वे बाहर आये और गेट की तरफ बढ़े। कोई नया चेहरा था जिसे उन्होंने शायद पहले कभी देखा नहीं था। सवाल किया, “मैंने आपको पहचाना नहीं। मुझसे काम है या किसी और के बारे में …?” कहते हुए गेट का एक पल्ला खोल दिया।

बाहर खड़े आगंतुक ने कहा, “दरअसल आपसे पानी मांगना चाहता था। गरमी है; प्यास लगी है।”

त्रिलोचन बाबू ने उक्त आगंतुक को ऊपर से नीचे तक देखा और पास में खड़ी की गयी साइकिल तथा उस पर लटके जूट के बोरे आदि को देखा तो बोले, “मुझे लगता है आप फेरी लगाकर घरों से कभाड़ इकट्ठा करते हैं।”

आगंतुक ने हामी भरी। त्रिलोचन बाबू “ठीक है, एक मिनट रुकिए, अंदर से पीने को पानी ले आता हूं।” कहते हुए लौटे और घर के अंदर दाखिल हुए। रसोईघर के सादे पानी के साथ फ्रिज का अतिशीतल पानी लोटे में मिलाकर उन्होंने हल्का ठंडा पानी तैयार किया और बाहर लौट आये। उस आगंतुक को लोटा सौंपते हुए किंचित् उलाहना भरे अंदाज में बोले, “गरमी के दिन हैं आप फेरी का काम करते हैं। आपको एक बड़ी बोतल में पानी लेकर चलना चाहिए। माना कि पानी ठंडा नहीं रह सकता, फिर भी पानी तो पानी ही है; शरीर की जरूरत पूरी करेगा ही।”

कभाड़ वाले ने जवाब दिया, “पानी लेकर ही चला करता हूं, बाबूजी। लेकिन आज रास्ते में पानी पीने को बोतल हाथ में लेते समय गिर गयी। उसका ढक्कन ढीला था, खुल गया और पानी जमीन में फैल गया।

“चलिए कोई बात नहीं। आप ये पानी पीजिए। तब तक में घर में देखता हूं शायद कोई बेहतर बोतल पड़ी हो।” कहते हुए वे वापस कमरे में आये।

उन्हें प्लस्टिक की एक खाली बोतल मिल गयी। उसमें ठंडा पानी भरकर बाहर ले आये और कभाड़ वाल्रे को सौंप दिया। उनकी नजर उस आदमी के पैरों की ओर पड़ी तो देखा कि उसने हवाई चप्पलें पहन रखी हैं जिनमें से एक का पट्टा टूटा था जिसे डोरी से बांधकर काम चलाऊ बना रखा था। जिज्ञासावश उन्होंने पूछ डाला, “आप टूटे पट्टे वाली चप्पल पहने हैं, दूसरी जोड़ी चप्पलें खरीद लेते। इसका क्या भरोसा रास्ते में धोखा दे जायें।”

“बाबूजी, अपनी आमदनी ज्यादा तो है नहीं। परिवार बड़ा है, माँ-बाप, दो बच्चे, और हम दो जने। पत्नी भी घरों में काम करती है। फिर भी कमाई कम पड़्ती है इसलिए हम दोनों (पति-पत्नी) की कोशिश होती है कि अपने पर कम से कम खर्च करें। ये चप्पलें कुछ दिन काम दे जाएंगी। देरसबेर खरीदनी तो पड़ेंगी ही।” जवाब था।

त्रिलोचन बाबू ने दोएक क्षण के लिए कुछ सोचा, फिर बोले, “मेरे पास इस्तेमाल की हुई एक जोड़ी चप्पलें हैं। ठीकठाक हालत में हैं। मैं अधिक पहनता नहीं। अगर आपको खुद पहनने में एतराज न हो तो आपको दे सकता हूं।”

“आप बुजुर्ग हैं। आपका आशीर्वाद समझकर पहन सकता हूं अगर मेरे पैर में फिट हो जायें तो।” उसने प्रस्ताव स्वीकारते हुए जवाब दिया।

त्रिलोचन बाबू घर के भीतर गये। अपनी एक जोड़ी चप्पलें उठा लाये और कभाड़ वाले को सौंपते हुए बोले, “मेरी पहनीं हैं। इसलिए इनको एक बार धो लीजियेगा।”

कभाड़ वाले ने चप्पलें पकड़ीं, गौर से उलट-पलटकर देखा और फिर बोरे में रखने का उपक्रम करने लगा। त्रिलोचन बाबू कुछ सोचते हुए बोले, “कितनी देर हुई है काम पर निकले हुए? लगता है अभी बोहनी नहीं हुई।”

“हां, अभी बोहनी नहीं हो पायी है। लेकिन हो जायेगी। घंटा भर ही तो हुआ है घर से निकले।” उसका जवाब था।

“अच्छा, ऐसा करिये घर में इस समय कुछ पुराने अखबार पड़े हैं। उन्हें लेते जाइए।” कहते हुए त्रिलोचन बाबू घर में दाखिल हुए और अखबारों का छोटा-सा पुलिंदा उठा लाए, जिसे कभाड़ वाले को सौंपते हुए बोले, “बोहनी के नाम पर इसे लेते जाइये। इसकी कोई कीमत देने की जरूरत नहीं है।”

कभाड़ वाले ने उस बंडल को लेकर अपने जूट के बोरे में डाला। बोरे को साइकिल पर लटका कर वह चलने को तैयार हुआ। “अच्छा, बाबूजी, चलता हूं।” कहते हुए उसने उनकी तरफ देखा जरूर, किंतु अधिक कुछ बोला नहीं। त्रिलोचन बाबू को उसकी आंखों में कृतज्ञता का भाव नजर आ रहा था। हो सकता है उन्हें भ्रम हुआ हो। उसे उन्होंने २-४ सेकंड तक जाते हुए देखा, फिर कमरे में लौट आये।

वापस सोफे पर बैठते हुए अखबार का पन्ना हाथ में लिया और सोचने लगे, ‘उस आदमी की जो मदद की थी देखा जाए तो वह कुछ खास नहीं थी। लेकिन उसके लिए उस समय वह भी कुछ माने तो रखता ही होगा। ऐसा न भी हो तो भी मुझे सुकून का महसूस तो हो ही रहा है। बदले में यही मेरे लिए बहुत है।’

‘आइंदा क्यों न किसी की छोटी-मोटी मदद की जाए?’ वे मन में सोचते हैं और जवाब सूझता है, ‘हां, हां, क्यों नहीं? गेट पर कोई आए तो उससे पूछा तो जा सकता है।’ – योगेन्द्र जोशी

1 टिप्पणी

Filed under कहानी, लघुकथा, लघुकथा, लघुकथा, कहानी, हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य, Uncategorized