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“ ‘बिच्छू’ से तैयार होगा कपड़ा, देगा रोजगार”

बीते एक पखवाडे पहले दैनिक जागरण समाचार-पत्र  के मुखपृष्ठ पर उक्त वक्यांश बतौर शीर्षक देख मेरे मन में जिज्ञासा उपजी कि बिच्छू से कैसे कपड़ा तैयार होगा भला। दरअसल समाचार-पत्र के मुखपृष्ठ पर केवल संक्षेप में उस समाचार का जिक्र होता है जिसका विस्तृत ब्योरा बाद के किसी पृष्ठ पर रहता है। उक्त मामले की अधिक जानकारी पृ.९ पर है यह मैंने देखा और फिर जागरण के समाचार पृष्ठवार पढ़ना आरंभ किया। मन में रह-रह के उक्त सवाल भी उठता रहा। समाचार पढ़ते हुए सोच भी रहा था कि बिच्छू के मामले में रेशम के कीड़े की भांति ‘कोकून’ तो बनता नहीं जिससे रेशम-धागा पाया जाता है। न ही वह मकड़ी की तरह कोई जाल बुनती है जिससे धागा मिल सकता हो। खैर, अंत में पृ. ९ पर पहुंचा और यह देख चौंका और तसल्ली भी हुई कि कपड़े ‘बिच्छू घास’ से बनेंगे न कि बिच्छू से।

समाचारपत्र में बिच्छू घास की बात पढ़कर मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये जब हम बच्चों को कभी-कभी बिच्छू घास का दंश झेलना पड़ता था। बता दूं कि मेरा जन्म उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में हुआ था जहां मेरे जीवन के शुरुआती १२-१३ वर्ष बीते थे। हमारे गांव के पैदल रास्तों के किनारे उगी झाड़ियों के साथ यह घास भी कहीं-कहीं उगी रहती थी। जब बच्चे २-४ साल या और बड़े  हो जाते लेकिन अनुभवहीन रहते तब कभी न कभी इस घास के शारीरिक संपर्क में आ जाते। त्वचा के संबंधित स्थान पर तेज जलन, चरचराहट, एवं दर्द की मिश्रित अनुभूति होती है। बिच्छू का डंक कैसा होता है इसका ज्ञान मुझे नहीं। अपने गांव में मैंने कभी बिच्छू देखा हो ऐसा याद नहीं आता। शायद बिच्छू का डंक़ कुछ वैसा ही होता होगा जैसा इस घास को छू लेने पर।

स्थानीय बोली में इस घास को सिसूण या सियूंण कहा जाता है। कुछ अन्य क्षेत्रों के बाशिंदे शायद कनाली भी कहते हैं। इंटरनेट पर जुटाई जानकारी से पता चला कि इस घास में रोगनिवारण के गुण भी मौजूद हैं। किंतु मैंने कभी बुजुर्गों के मुख से इसकी चिकित्सकीय उपयोगिता की बात नहीं सुनी थी। उस काल के अनुभवों को ५५-६० साल बीत चुके हैं। फिर भी एक बात मुझे याद आती है जिसके बारे में सुनिश्चित नहीं हूं। पैर में मोच आने पर हल्की मुरझाई इस घास से झाडने से आराम मिलता था। एक और बात याद है कि इस घास के कोपलों, पत्तियों एवं मुलायम डंठलों वाले हिस्सों के धूप में मुरझा चुकने के बाद सूखा साग बनाने के काम में भी लिया जाता था।

इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है कि इस घास की डंठल तथा पत्तियों की (खास तौर पर उल्टी) सतह पर महीन रोवों के रूप मे सख्त कांटे होते हैं। शरीर की त्वचा के संपर्क में आते ही ये उसमें चुभ जाते हैं और ये कांटे त्वचा में एक रसायन छोड़ते हैं। त्वचा के उस स्थान पर तेज जलन, चरचराहट, एवं दर्द की मिश्रित अनुभूति होती है। इस घास को अंग्रेजी में स्टिंगिंग घास (stinging-nettle एवं वैज्ञानिक नाम urtica dioica) कहा जाता है। (देखें विकीपीडिया)

जैसा आरंभ में कहा है बिच्छू घास से कपड़ा बनेगा, परंतु कैसे यह मुझे पता नहीं चल पाया। कदाचित इसके तने की रेशेदार छाल से यह संभव हो जैसा भांग के पौधे की छाल से होता है। यह भांग वही है जिससे गांजा तथा चरस जैसा नशा मिलता है। देखे विकीपीडिया 

 भांग उत्तराखंड के कुमाऊ अंचल में काफी लोकप्रिय है नशे के लिए ही नहीं बल्कि भोज्य पदार्थ के रूप में। भांग के दाने (बीज) स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होते हैं और इनमें नशा नहीं होता। इसी भांग के पौधे के सीधे तने से मिलने वाले बेहद मजबूत रेशे से थैले, बोरे, चादरें बनाई जाती हैं, जैसे जूट से। कदाचित बिच्छू घास से सीधे तने की छाल का भी ऐसा ही प्रयोग हो सकता है। -योगेन्द्र जोशी

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